शुक्रवार, 1 मई 2015


सुबहों शाम फिरता हूॅ दर दर 
पर दरवाजे बंद मिले 
थक हार कर सोई राहें 
पैर मेरे दिन रात चले 
कलम, कुदाली, और हतौडा 
विरसे में उपहार मिले 
भुजबल से पर्वत को चीरा 
नीचे सूखे ताल मिले 
नित नये भवन बनाता रहता 
हाल मगर बेहाल रहे 
मुक्‍ताकाश में सोते बच्‍चे 
भूखे और लाचार रहे 
मंदिर मस्जिद मात्‍थ टेका 
हाल मगर बेहाल रहे 
महेन्‍द्र भार्गव 
गंज बासौदा


शनिवार, 8 फ़रवरी 2014




बड़ा कातिल अँधेरा है 
बड़ा कातिल अँधेरा है सुबह होने नहीं देगा 
निगाहों से निगाहों तक धुँआ है बस उदासी है 
ज़रा देखो किसी पुल से नदी हर एक प्यासी है 
भयानक ख्वाब आँखों फिर सोने नहीं देगा
बड़ा कातिल ……………… 
बहुत अनुकूल है मौसम घटायें महरवा भी है
सफ़र के ही मुताबिक  सारी हवायें 
तलातुम अपनी कश्ती का सफ़र होने नहीं देगा 
बड़ा कातिल ……………… 

महेन्द्र भार्गव 
गंज बासौदा 

शनिवार, 20 अगस्त 2011

रात जगती है

नीद खडी सिरहाने अक्सर रात जगती है
अधरों की भाषा नैनो से साफ झांकती है
तन्हाई में नाम लिखी थी उसके जो पाती
आज सुना वो चुपके चुपके
रोज बांचती है
महेंद्र भार्गव
गंज बसोदा

शनिवार, 23 जुलाई 2011

चला चल ......................

यक्ष प्रश्न कुछ एसे जिनका  खोजा जाये हल 
चला चल, चला चल ......................
प्यास जब जब भी बड़ी हम से रूठी हर नदी फोड़ आये गगरियों को या तलाशे जल
चला चल, चला चल ...................... 
यह जीवन का ताना बाना 
बड़ा जटिल इस को सुलझाना 
एक गाठ के खुल जाने से 
कब मिटता है बल 
चला चल, चला चल ...................... 
 बॉस मारते बासे रिश्ते 
उम्र बीतती इनमे पिसते 
कितनो को है लील गए 
यह सम्बन्धी दलदल 
चला चल, चला चल ...................... 
बुझा बुझा सा है उजियारा 
सूरज परछाई से हारा 
देखे धीरज धर लेने का 
क्या मिलता प्रतिफल 
चला चल, चला चल ......................

  •  महेंद्र भार्गव 
          (गंज बासोदा)

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

देश मेरा


देश मेरा बलिदानियों का संगम है 
वीरो पर कुर्बान मेरा तन मन है

आज़ादी की डोली लाये दीवाने 
मोल लहू का उनके आओ पहचाने 

लाठी गोली खाई फंसी पे झूले
इन्कलाब की रह पर चलना न भूले

भारत माँ के लाल बड़े थे अलबेले 
हँसते हँसते अपनी जन पे थे खेले

उनकी गाथा गता गंगा का जल है
वीरो पर कुर्बान ......................

वीरो की राहों पर चलने का प्रण लें 
राग राग में उत्साह नए हम भी भर लें

जो नज़र डालेगा माँ के दमन पर 
नाम मिटा देंगे उसका हम इस जग से 

इतना तो अपनी बाँहों में भी बल है
वीरो पर कुर्बान........................

महेंद्र भार्गव 
गंज बासोदा


 

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

बच्चे



मुठ्ठी में बंद कस्तूरी सा महकता बचपन 
या किसी रिसक पट्टी पर फिसलता बचपन
जिस सांचे में ढालोगे ढल जायेंगे 
बच्चे हैं आज संभाला तो संभल जायेंगे 
महेंद्र भार्गव

गंज बसोड़ा