शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

दिया जलता है



हर एक अश्क माँ का मुझसे सवाल करता है
तेरी कमाई से घर कैसे मेरा चलता 

जिंदगी आ के ठहर जाती  है उन पलकों पे 
घर जब भी किसी  जरुरत को तलब करता है
हर एक अश्क माँ का मुझसे सवाल करता है..........

ग़मों कि आंच पे पकती है मेरे घर कि रोटी
आग चूल्हे में नहीं दिल से धुआं निकलता है

कभी तो बदलेंगे मेरे घर के हालत 
बस इसी आश  में मंदिर पे दिया जलता है  
हर एक अश्क माँ का मुझसे सवाल करता है
महेंद्र भार्गव 
गंज बासोदा


मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

क्या करें

पी गए सरे उजालों को अँधेरे क्या करें 
है दीयों से रौशनी  की आश आखिर क्या करें 

आये कब और कब गए त्यौहार  मौसम की तरह
खली जेबों से भला सत्कार इन का क्या करें

रूठ कर बैठी हैं बुलबुल और तितली बाग से 
हर तरफ ऐसे चमन है हम नज़ारा क्या करें
महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा




गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

व्यर्थ गवाया

 नाम कमाया जीवन भर ना नामा पाया 
सब कहते है जीवन तू ने व्यर्थ गवाया
अरे हम तो ठहरे  निपट अनाड़ी 
क्या समझेंगे दुनियादारी
गिरगिट जैसा रंग स्वाभाव में भर ना पाया
सब कहते है जीवन तू ने व्यर्थ गवाया
ऊँची नीची रह चले है आड़े टेड़े होग मिले है 
अपशब्दों के बदले में आभार जताया 
सब कहते है जीवन तू ने व्यर्थ गवाया
महेंद्र भार्गव 
गंज बासोदा 

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

सूनी है दहलान

सन्नाटा पसरा गलियों में सूनी है दहलान
दहलीजों से लड़ते देखे हमने कई मकान

कच्ची उम्र पर बोझ धरा है 
मौसम भी प्रतिकूल खड़ा है 
चलाना फिर भी रोज पड़ा है
मुहं बाये बैठी थी आगे सौ रहे अनजान
सन्नाटा पसरा गलियों .........


कैसी गंध फिजा में लेकर अब के सावन आया
फूलों से खुश्बू गायब है और दरख्त से साया
ऐसे में बच पाए कैसे गुलशन कि पहचान
सन्नाटा पसरा गलियों में सूनी..............


हमने सघन रात है कटी
सिर्फ रौशनी दीयों ने बनती
कैसे चुकता हो पायेगा
दीपों का एहसान
सन्नाटा पसरा गलियों में सूनी है.............
महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

रिश्ते

रिश्ते पानी पर बनाये चित्रों कि तरह मिट जाते है
और ढह जाते है रेट कि दीवार कि तरह 


रिश्ते चुभ जाते है काँटों कि तरह 
और मुरझा जाते है फूलों कि तरह 


रिश्ते टूट जाते है ख्वाबों कि तरह 
रिश्ते बिखर जाते है ताश के महलों कि तरह 


रिश्ते बहुत नाजुक होते है  फिर भी
 ना जाने क्यों जुड़ जाते है रिश्ते


महेंद्र भार्गव 
गंज बासोदा

रविवार, 26 सितंबर 2010

बुझी बुझी सी शाम ढली

थका  थका सा दिन निकला
बुझी बुझी सी शाम ढली
रात हुई भूखे  पेटों को रोटी कि
फिर आश जगी

चूल्हा  बुझा पड़ा जिस घर का
अंगारें है राख हुए
उस घर से चूहों कि टोली
बाहर निकल पड़ी

राम उठाये भूखा पर
भर पेट सुलाता है
आग पेट कि इन बातो से
किसकी यहाँ बुझी

हाय गरीबी नागिन बन
पग पग पर डसती  है
 दो जून रोटी के बदले
इज्जत लुटती है

भूख पेट कि हाय हमे है
मौत से बड़ी लगी
थका  थका सा दिन निकला
बुझी बुझी सी शाम ढली ........

महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा

बुधवार, 22 सितंबर 2010

दरवाजे बंद मिले


सुबह शाम फिरता हूँ दर दर
पर दरवाजे बंद मिले
थक  हार  कर बैठी राहें
पैर मेरे दिन रात चले

 
कलम कुदाली और हथौड़ा
विरसे में उपहार मिले
भुजबल से पर्वत को चीरा
नीचे सूखे ताल मिले


नित नए भवन बनाता  रहता
हल मगर बेहाल रहे 
मुकताकाश में सोते बच्चे  भूखे
और बेहाल मिले


रोज जन्म लेती हैं
शंका हर जीत से द्वन्द चले
मंदिर मस्जिद मत्था टेका 
मगर देवता रुष्ट मिले


महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा