मंगलवार, 28 सितंबर 2010

रिश्ते

रिश्ते पानी पर बनाये चित्रों कि तरह मिट जाते है
और ढह जाते है रेट कि दीवार कि तरह 


रिश्ते चुभ जाते है काँटों कि तरह 
और मुरझा जाते है फूलों कि तरह 


रिश्ते टूट जाते है ख्वाबों कि तरह 
रिश्ते बिखर जाते है ताश के महलों कि तरह 


रिश्ते बहुत नाजुक होते है  फिर भी
 ना जाने क्यों जुड़ जाते है रिश्ते


महेंद्र भार्गव 
गंज बासोदा

रविवार, 26 सितंबर 2010

बुझी बुझी सी शाम ढली

थका  थका सा दिन निकला
बुझी बुझी सी शाम ढली
रात हुई भूखे  पेटों को रोटी कि
फिर आश जगी

चूल्हा  बुझा पड़ा जिस घर का
अंगारें है राख हुए
उस घर से चूहों कि टोली
बाहर निकल पड़ी

राम उठाये भूखा पर
भर पेट सुलाता है
आग पेट कि इन बातो से
किसकी यहाँ बुझी

हाय गरीबी नागिन बन
पग पग पर डसती  है
 दो जून रोटी के बदले
इज्जत लुटती है

भूख पेट कि हाय हमे है
मौत से बड़ी लगी
थका  थका सा दिन निकला
बुझी बुझी सी शाम ढली ........

महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा

बुधवार, 22 सितंबर 2010

दरवाजे बंद मिले


सुबह शाम फिरता हूँ दर दर
पर दरवाजे बंद मिले
थक  हार  कर बैठी राहें
पैर मेरे दिन रात चले

 
कलम कुदाली और हथौड़ा
विरसे में उपहार मिले
भुजबल से पर्वत को चीरा
नीचे सूखे ताल मिले


नित नए भवन बनाता  रहता
हल मगर बेहाल रहे 
मुकताकाश में सोते बच्चे  भूखे
और बेहाल मिले


रोज जन्म लेती हैं
शंका हर जीत से द्वन्द चले
मंदिर मस्जिद मत्था टेका 
मगर देवता रुष्ट मिले


महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा