शनिवार, 20 अगस्त 2011

रात जगती है

नीद खडी सिरहाने अक्सर रात जगती है
अधरों की भाषा नैनो से साफ झांकती है
तन्हाई में नाम लिखी थी उसके जो पाती
आज सुना वो चुपके चुपके
रोज बांचती है
महेंद्र भार्गव
गंज बसोदा

शनिवार, 23 जुलाई 2011

चला चल ......................

यक्ष प्रश्न कुछ एसे जिनका  खोजा जाये हल 
चला चल, चला चल ......................
प्यास जब जब भी बड़ी हम से रूठी हर नदी फोड़ आये गगरियों को या तलाशे जल
चला चल, चला चल ...................... 
यह जीवन का ताना बाना 
बड़ा जटिल इस को सुलझाना 
एक गाठ के खुल जाने से 
कब मिटता है बल 
चला चल, चला चल ...................... 
 बॉस मारते बासे रिश्ते 
उम्र बीतती इनमे पिसते 
कितनो को है लील गए 
यह सम्बन्धी दलदल 
चला चल, चला चल ...................... 
बुझा बुझा सा है उजियारा 
सूरज परछाई से हारा 
देखे धीरज धर लेने का 
क्या मिलता प्रतिफल 
चला चल, चला चल ......................

  •  महेंद्र भार्गव 
          (गंज बासोदा)

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

देश मेरा


देश मेरा बलिदानियों का संगम है 
वीरो पर कुर्बान मेरा तन मन है

आज़ादी की डोली लाये दीवाने 
मोल लहू का उनके आओ पहचाने 

लाठी गोली खाई फंसी पे झूले
इन्कलाब की रह पर चलना न भूले

भारत माँ के लाल बड़े थे अलबेले 
हँसते हँसते अपनी जन पे थे खेले

उनकी गाथा गता गंगा का जल है
वीरो पर कुर्बान ......................

वीरो की राहों पर चलने का प्रण लें 
राग राग में उत्साह नए हम भी भर लें

जो नज़र डालेगा माँ के दमन पर 
नाम मिटा देंगे उसका हम इस जग से 

इतना तो अपनी बाँहों में भी बल है
वीरो पर कुर्बान........................

महेंद्र भार्गव 
गंज बासोदा


 

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

बच्चे



मुठ्ठी में बंद कस्तूरी सा महकता बचपन 
या किसी रिसक पट्टी पर फिसलता बचपन
जिस सांचे में ढालोगे ढल जायेंगे 
बच्चे हैं आज संभाला तो संभल जायेंगे 
महेंद्र भार्गव

गंज बसोड़ा

बुधवार, 26 जनवरी 2011

बहुत उदास आज जीवन है

घर के अन्दर एक नया घर
दीवारों के साथ बटा मन
संबंधों में आया कैसा सूनापन है
बहुत उदास आज जीवन है

सुलझे सुलझे थे जो रिश्ते
नाहक ही क्यों हमसे उलझे
ताना बना टूट ना जाये डरता मन है
बहुत उदास आज जीवन है

माँ बैठी है आस लगाये बेटा फिर भी घर ना आये
त्योहारों पर सूना घर रीता आंगन है
बहुत उदास आज जीवन है

बूढ़ा बाप कम पर जाये
तब घर  में चूल्हा जल पाए
दो जून रोटी में खटता सारा दिन है
बहुत उदास आज जीवन है

महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

गणतंत्र

जन  गण पर हावी हुआ राजनीती का तंत्र
जनता फिर भी चाव से मन रही गणतंत्र

नैतिकता कुंठित हुई
मानवता लाचार
गावं गावं में फैलता
आतंकी व्यापार

अर्थहीन सी जिंदगी कुछ ना सूझे बात
दहशत में हैं बीतते दिन तो चाहे रात

माती अब खोने लगी उसकी मधुर सुगंध
सांसों में घुलने लगी
अब बारूदी गंध

बेइमानो की भीड़  में जनता है खामोश
इन को हम ने खुद चुना अब किसको दे दोष
महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा 

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

इंतजार

 हम राह देखते रहे प्रभात कि 
ना जाने कब सहर होगी इस रात कि
आज बस्तियों से फिर धुआं उठा है 
किसी ने फिर छेड़ दी है जिक्र जात कि 
महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा