बुधवार, 22 सितंबर 2010

दरवाजे बंद मिले


सुबह शाम फिरता हूँ दर दर
पर दरवाजे बंद मिले
थक  हार  कर बैठी राहें
पैर मेरे दिन रात चले

 
कलम कुदाली और हथौड़ा
विरसे में उपहार मिले
भुजबल से पर्वत को चीरा
नीचे सूखे ताल मिले


नित नए भवन बनाता  रहता
हल मगर बेहाल रहे 
मुकताकाश में सोते बच्चे  भूखे
और बेहाल मिले


रोज जन्म लेती हैं
शंका हर जीत से द्वन्द चले
मंदिर मस्जिद मत्था टेका 
मगर देवता रुष्ट मिले


महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा

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