रविवार, 26 सितंबर 2010

बुझी बुझी सी शाम ढली

थका  थका सा दिन निकला
बुझी बुझी सी शाम ढली
रात हुई भूखे  पेटों को रोटी कि
फिर आश जगी

चूल्हा  बुझा पड़ा जिस घर का
अंगारें है राख हुए
उस घर से चूहों कि टोली
बाहर निकल पड़ी

राम उठाये भूखा पर
भर पेट सुलाता है
आग पेट कि इन बातो से
किसकी यहाँ बुझी

हाय गरीबी नागिन बन
पग पग पर डसती  है
 दो जून रोटी के बदले
इज्जत लुटती है

भूख पेट कि हाय हमे है
मौत से बड़ी लगी
थका  थका सा दिन निकला
बुझी बुझी सी शाम ढली ........

महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा

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