थका थका सा दिन निकला
बुझी बुझी सी शाम ढली
रात हुई भूखे पेटों को रोटी कि
फिर आश जगी
चूल्हा बुझा पड़ा जिस घर का
अंगारें है राख हुए
उस घर से चूहों कि टोली
बाहर निकल पड़ी
राम उठाये भूखा पर
भर पेट सुलाता है
आग पेट कि इन बातो से
किसकी यहाँ बुझी
हाय गरीबी नागिन बन
पग पग पर डसती है
दो जून रोटी के बदले
इज्जत लुटती है
भूख पेट कि हाय हमे है
मौत से बड़ी लगी
थका थका सा दिन निकला
बुझी बुझी सी शाम ढली ........
महेंद्र भार्गव
गंज बासोदा
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